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लघुकथाएँ

बेटी

पद्मजा शर्मा


वह कमजोर पड़ती है तो मैं मजबूत हो जाती हूँ। मैं उदास होती हूँ तो वह बात बदल देती है। उसका गला भर आता है। कभी-कभी वह बोलते-बोलते रुक-सी जाती है। मैं सब समझ जाती हूँ। मेरे भीतर का हाहाकार आँसू बनकर बाहर निकलने को होता है। और मैं फोन काट देती हूँ। उसका कमरा, अलमारी, कपड़े, फोटो देखती हूँ। उन्हें छूती हूँ। अकेले, सूने घर में रो पड़ती हूँ। फिर आँसू पोंछती हूँ। पानी पीती हूँ। उसे समय देती हूँ। मैं भी लेती हूँ। आखिर बेटियों को अपने से दूर क्यों भेजना पड़ता है?

मैं उसे फिर से फोन करती हूँ। अब हम माँ बेटी ऐसे बातें करती हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। फोन तो नेटवर्क न आने के कारण कट गया था, बस। लेकिन अंत में वह संयत रहते हुए थोड़ा जोर से भरी-भरी आवाज में कहती है - 'माँ, अपना ख्याल रखना। और अब कभी फोन मत काटना।' और खुद फोन काट देती है।


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